अपनी परिकल्पना को पूरा करने के लिए, राष्ट्रीय कॉलरा और आंत्र रोग संस्थान (NICED) द्वारा निम्नलिखित कार्य किये जायेंगे
राष्ट्रीय कॉलरा और आंत्र रोग संस्थान (NICED) अपने किराए के परिसर
3 KYD स्ट्रीट से पि-३३ सी. आई. टी रोड, स्कीम XM, बेलियाघाटा, कोलकाता
- ७०००१० में अवस्थित अपने निजी संस्थान पर स्थानांतरित हो गया| ये जगह
संक्रामक रोग अस्पताल के निकटस्थ है| इस संस्थान की अनूठी विशेषता यह
है कि यह एक ही छत के नीचे डायरियल बीमारियों (दस्त की बीमारियां) पर
बुनियादी गवेषणा, व्यवहारिक चिकित्सीय और महामारी विज्ञान अनुसंधान
संचालित करता है। इस संस्थान में बैक्टीरियोलॉजी, वायरोलॉजी,
पैरासिटोलॉजी, बायोकैमिस्ट्री, पैथोफिजियोलॉजी, आणविक जीवविज्ञान,
इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी, इम्यूनोलॉजी और बायोकैमिस्ट्री जैसे विभिन्न
विषयों में अच्छी तरह से सुसज्जित, आधुनिक तकनीकी सुविधाओं के साथ
मौलिक विज्ञान व्यवस्था है।
इस संस्थान के चिकित्सीय प्रभाग ने अपनी इकाइयों को दो अलग-अलग राज्य
अस्पतालों में स्थापित किया है| ये संक्रामक रोग अस्पताल और बच्चों के
लिए डॉ बी.सी. रॉय मेमोरियल अस्पताल हैं | सहयोगी अनुसंधान कार्यक्रम
अन्य राज्य अस्पतालों में भी आयोजित किए जा रहे हैं, जैसे कि एस. एस.
के. एम. अस्पताल, कलकत्ता मेडिकल कॉलेज और अस्पताल, एनआरएस मेडिकल
कॉलेज और अस्पताल|
कोलकाता के पास अर्द्ध शहरी और ग्रामीण इलाकों में महामारी विज्ञान
अध्ययन के लिए संस्थान के अपने स्वयं के चुने हुए क्षेत्र हैं। विभिन्न
डिवीजनों के अनुसंधान गतिविधियां को यंत्र और उपकरण अनुभाग, मीडिया
अनुभाग और पशु गृह अनुभाग द्वारा सहयोग किया जाता है। बड़ी संख्या में
ग्रंथों और संदर्भ पुस्तकों के साथ एक अच्छी तरह से बनाए गये पुस्तकालय
और ऑनलाइन सुविधाओं के साथ अग्रणी राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय पत्रिकाओं
का विस्तृत संग्रह संस्थान को मज़बूती देता है|
हालांकि इस संस्थान को भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर), नई
दिल्ली द्वारा मुख्य रूप से वित्तीय प्रबंधित किया गया है, विभिन्न
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय वित्त प्रबंधित एजेंसियां विशिष्ट अनुसंधान
परियोजनाओं पर संस्थान को समर्थन प्रदान करती हैं।
जापानी इंटरनेशनल को-ऑपरेटिव एजेंसियां (JICA) ने इस संस्थान के साथ एक
तकनीकी सहयोगी अनुसंधान को वित्त प्रबंधित किया है जिससे विब्रियो पर
विशेष जोर देते हुए विभिन्न एंटरोपैथोजेन के आणविक पहलुओं पर गवेषणा
किया जाएगा| JICA-NICED एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत, जापानी वैज्ञानिक
इस संस्थान में काम कर रहे हैं और इस संस्थान के वैज्ञानिक और तकनीकी
व्यक्ति भी उन्नत जापानी प्रयोगशालाओं में प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे
हैं। जैव प्रौद्योगिकी विभाग (DBT), भारत सरकार DST, CSIR, पर्यावरण
मंत्रालय, आदि बुनियादी गवेषणा पर कई परियोजनाओं का सहयोग करते हैं।
डब्ल्यू.एच.ओ (WHO) और यूनिसेफ (UNICEF) भी लागू अनुसंधान गतिविधियों
में सहायता प्रदान करते हैं।
दस्त का बीमारियों के प्रबंधन निवारक पहलुओं पर कई कार्यशालाओं को
डब्ल्यूएचओ, यूनिसेफ और भारत की स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय,
सरकार द्वारा प्रायोजित किया जाता है। ये राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय
कार्यशालाएं इस संस्थान में आयोजित की जाती हैं तथा भारत के विभिन्न
हिस्सों में भी आयोजित की जाती हैं जिनमें राज्य स्वास्थ्य सेवाओं और
अंतर्राष्ट्रीय प्रतिभागियों के डॉक्टर शामिल हैं। इस संस्थान में
डब्ल्यू.एच.ओ (WHO) और जैव प्रौद्योगिकी विभाग (DBT) प्रायोजित कई
कार्यशालायों आयोजित किया जाता है जिसमे तेजी स्क्रीनिंग पद्धति से
विभिन्न एंटरोपैथोजेन का पता लगाया जाता है| प्रत्येक वर्ष इस संस्थान
के कई स्नातकोत्तर छात्रों को राज्य के विभिन्न विश्वविद्यालय पीएचडी
डिग्री से सम्मानित करते हैं, जैसे कि कलकत्ता विश्वविद्यालय, यादवपुर
विश्वविद्यालय, कल्याणी विश्वविद्यालय, बर्दवान विश्वविद्यालय, विश्व
भारती विश्वविद्यालय, आदि|
डायरियल बीमारियों पर प्रशिक्षण के लिए स्नातकोत्तर मेडिकल छात्र भी संस्थान के पाठ्यक्रमों में भाग लेते हैं तथा वैज्ञानिकों के थीसिस के काम के लिए एम.डी छात्रों के सह-गाइड के भूमिका निभाते है। डब्ल्यू.एच.ओ(WHO) और जे.आई.सी.ए(JICA) अंतर्राष्ट्रीय सहयोगियों को राष्ट्रीय कॉलरा और आंत्र रोग संस्थान (NICED) से दस्त रोगों पर प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए भी भेजते हैं। इस प्रकार एन.आई.सीई.डी (NICED) कई दशकों से न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी दस्त के शोध में एक केंद्रीय मध्यविंदु के रूप में विकसित हुआ है|
लगभग ५४ साल पहले १९६२ में, भारतीय चिकित्सा परिषद (ICMR) द्वारा कॉलरा और अन्य दस्तों के रोगों की रोकथाम और नियंत्रण पर अनुसंधान करने के लिए कॉलरा रिसर्च सेंटर स्थापित किया गया था। १९६८ में इस संस्थान को कोलकाता में कॉलरा चरणों पर उत्कृष्ट अध्ययन के लिए डब्ल्यू.एच.ओ(WHO) द्वारा "विब्रियो फेज टाइपिंग के लिए अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ केंद्र" ("International Reference Centre for Vibrio Phage Typing") की दर्जा दिया गया और बाद में, १९७८ में, इसे "विब्रियोस पर संदर्भ और अनुसंधान के लिए डब्ल्यू.एच.ओ का सहयोगात्मक केंद्र" ("WHO Collaborative Centre for Reference and Research on Vibrios") के रूप में नामांकित किया गया था।
तत्पश्चात्, आई.सी.एम.आर (ICMR) ने इस केंद्र को एक पूर्ण अनुसंधान संगठन में परिवर्तित कर दिया और इसे "राष्ट्रीय संस्थान" का दर्जा देते हुए १९७९ में "राष्ट्रीय कॉलरा और आंत्र रोग संस्थान (NICED)" का नया नाम दिया| डब्ल्यू.एच.ओ (WHO) ने १९८० में इस संस्थान को "दस्त की बीमारी पर अनुसंधान और प्रशिक्षण के लिए डब्ल्यू.एच.ओ सहयोगात्मक केंद्र("WHO Collaborative Centre for Research and Training on Diarrhoeal Diseases") के रूप में मान्यता दी।
पिछले पांच दशकों में राष्ट्रीय कॉलरा और आंत्र रोग संस्थान (NICED) की यात्रा का इतिहास महत्वपूर्ण था। हमने विशिष्ट गुणवत्ता वाले जैव चिकित्सा अनुसंधान के संचालन के लिए उत्तम बुनियादी ढांचा, संकाय शक्ति और शैक्षिक वातावरण विकसित किया जिसके परिणामस्वरूप स्वास्थ्य प्रणाली से संबंधित कार्यक्रमों जैसे डायरिया रोग नियंत्रण योजना और स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग, भारत सरकार द्वारा ओरल रिहाइड्रेशन थेरेपी के क्रियान्वयन को मजबूत किया गया।
एन.आई.सीई.डी (NICED) ने 'सभी के लिए स्वास्थ्य' के लक्ष्य को हासिल करने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के निधि के साथ सामुदायिक स्तर पर साक्ष्य आधारित शोध को लागू करके राज्य स्वास्थ्य विभाग के साथ मिलकर काम किया। व्यवहारिक शोध एक और महत्वपूर्ण क्षेत्र है जिस पर एन.आई.सीई.डी (NICED) में जोर दिया जाता है जो क्षेत्र की स्थिति में प्रयोगशाला आधारित शोध निष्कर्षों के उपयोग की स्थापना को सक्षम बनाता है।
एन.आई.सीई.डी (NICED) क्षमता निर्माण और मानव संसाधन विकास (HRD) पर भी केंद्रित है जिसके परिणामस्वरूप पीएचडी डिग्रियाँ प्राप्त करने के लिए कई पूर्व-डॉक्टरेट फेलो के लिए अनुसंधान अवसरों का प्रसार हुआ है तथा पोस्ट-डॉक्टरेट को स्वतंत्र शोध करने के लिए मौका मिला है| शोध अध्येता संस्थान की ताकत हैं जो दृढ़ता से समर्थित हैं ताकि वे अनुसंधान अध्ययनों में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन और वितरण कर सकें।इस संस्थान में छात्रों, तकनीकी कर्मचारियों, वैज्ञानिकों, विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालयों के संकाय के लिए जागरूकता, ज्ञान और अभ्यास के कई अल्पकालिक प्रशिक्षण कार्यक्रम / कार्यशालाएं नियमित रूप से आयोजित की जाती हैं। इन अध्ययनों के परिणाम नियमित रूप सहकर्मी समीक्षित उच्च प्रभावशाली अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं की में प्रकाशित होते हैं|
पिछले कुछ वर्षों के दौरान, एन.आई.सीई.डी (NICED) की अनुसंधान गतिविधियाँ का विस्तार आगे बढ़ाया गया और राष्ट्रीय आवश्यकता के आधार पर विभिन्न अन्य क्षेत्रों में विस्तारित किया गया जैसे कि एंटीमाइक्रोबायल प्रतिरोध; मातृ और शिशु स्वास्थ्य के पौष्टिक घटक, कोलेरा, शिगेलोसिस, सैल्मोनेलोसिस, अमीबायसिस जैसे दस्त से होने वाली पर्यावरणीय और जलवायु कारकों की भूमिका; बैक्टीरिया में उच्च स्तर के एंटीमिक्राबियल प्रतिरोध जिससे नवजात सेप्टिसिमीया होता हैं तथा इन्फ्लूएंजा और अन्य गैर-इन्फ्लूएंजा वायरस समेत सामान्य रोगजनकों के कारण तीव्र श्वसन पथ संक्रमण की निगरानी|
एन.आई.सीई.डी(NICED) का एक और अधिदेश है एच.आई.वी/एड्स (HIV/AIDS) पर अनुसंधान, जिसे एन.आई.सीई.डी (NICED) वैज्ञानिकों ने मणिपुर और पंजाब मे स्थित आईडीयू (IDU) के बीच एच.आई.वी/एड्स(HIV/AIDS) के प्रकोप, एच.आई.वी रोगियों की सामाजिक-व्यवहारिक चुनौतियों और कठिनाइयों तथा एचआईवी से पीड़ित बच्चों या एचआईवी से प्रभावित बच्चों का स्थिति विश्लेषण का अध्ययन करने के बाद पूरा किया|
एन.आई.सीई.डी (NICED) में किए जा रहे रूपांतरण अनुसंधान के कुछ उदाहरण हैं नई चिकित्सीय किट का विकास और मूल्यांकन; कॉलरा, टाइफोइड बुखार, शिगेलोसिस के खिलाफ स्वदेशी टीकों को विकसित करने का प्रयास तथा व्यवस्थित या स्थानीय संक्रमण के लिए जडी बूटी सम्बन्धी सूत्रीकरण|
मौखिक कोलेरा टीका, Vi पॉलिसाक्साइड टाइफाइड टीका, तथा पेंटवालेन्ट्रोटा वायरस टीका पर बहु केंद्र परीक्षण पर टीका-संबंधी परीक्षणों के सफल समापन सामुदायिक स्तर पर एन.आई.सीई.डी (NICED) द्वारा किए गए लागू अनुसंधान के सर्वोत्तम उदाहरण हैं।
सरकारी संगठन से जब कोई भी अनुरोध आया है, अपनी शुरुआत से एन.आई.सीई.डी (NICED) ने पश्चिम बंगाल राज्य के साथ-साथ देश के किसी अन्य हिस्से में दस्त की बीमारियों, संक्रामक हेपेटाइटिस और अज्ञात बुखार के किसी भी प्रकोप की जांच के लिए अपने सहयोग में वृद्धि की है। हाल ही में हमने इन्फ्लूएंजा, एवियन और स्वाइन फ्लू के आने वाले महामारी तथा मिजोरम में ज्यादा शिशु मृत्यु अनुपात की जांच के लिए राज्य सरकार को सक्रिय समर्थन का विस्तार किया है। एन.आई.सीई.डी (NICED) कई स्वास्थ्य संबंधी राष्ट्रीय कार्यक्रमों जैसे टीकाकरण कार्यक्रम, महामारी तैयार करने के कार्यक्रम, राज्य तथा जिला स्तरों में सार्वजनिक स्वास्थ्य दृष्टिकोण के लिए तकनीकी क्षमता को मजबूत बनाने में सक्रिय भागीदारी भूमिका निभाता है।
मैं आभारी तौर पर राष्ट्रीय एजेंसियों (DBT, DST, CSIR, ICMR, DAE) और अंतरराष्ट्रीय वित्त पोषण एजेंसियां (BMGF, JICA, IVI, WHO, etc ) के योगदान को स्वीकार करती हूं जो कई दशकों से फैले हुए हैं तथा जिसने एन.आई.सीई.डी (NICED) को बढ़ने और वर्तमान स्थिति में आने में मदद की है| एन.आई.सीई.डी (NICED) एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में मौजूदा स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों को संबोधित करने के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों दोनों के साथ अधिक सहयोगी अनुसंधान परियोजनाओं के संचालन में सक्रिय भागीदारी का स्वागत करता है|
मैं सभी वैज्ञानिक, तकनीकी और प्रशासनिक कर्मियों को उनके उत्कृष्ट प्रदर्शन और समर्थन से बुनियादी तथा व्यवहारिक अनुसंधान के क्षेत्र में अपनी महिमा और प्रतिष्ठा रखते हुए संस्थान के प्रभावी संचालन के लिए बधाई और धन्यवाद देना चाहती हूँ| अंत में, जब भी आवश्यकता पड़ी, उस समय भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के द्वारा दिये गये उदार सहयोग को आभारी रूप से स्वीकार किया जाता है।
शांता दत्ता
(वैज्ञानिक G और प्रबंधक)
अति प्राचीन काल से पूर्वी भारत और प्रमुख रूप से गंगा नदी के
डेल्टा को हैज़ा का जन्म-स्थान तथा बहुत सारे संक्रामक रोग और
ज़्यादा से ज़्यादा महामारियों का केंद्रीय स्थल समझा जाता है|
फिलिप्पो पासीनी (Filippo Pacini) द्वारा हैजा का कारक घटक
विब्रियो कोलरा (Vibrio cholera) का पहली बार वर्णन तथा जॉन
स्नो (John Snow) द्वारा पानी से उत्पन्न संचरण का प्रमाण सामने
लाने के बाद लगभग दो सदी बीत चुकी हैं| सन १८८३ के दौरान
रोबर्ट कोच (Robert Koch) इजिप्ट के आलेक्जन्द्रिया में इस
जीवाणु की पहचान की और उसके पश्चात कलकत्ता (वर्तमान में
कोलकाता) में इसकी वृद्धि की|
लगभग ७० साल के पश्चात कोलकाता के शम्भू नाथ दे (S.N. De) तथा
मुम्बई के निर्मल कुमार दत्ता (N.K. Dutta) ने भारत में उस
टोक्सिन का अन्वेषण किया जिसके कारण हैजा फैलता था| दे और दत्ता
ने अपने जाँच के दौरान एक पशु मॉडल को दुबारा रोगग्रस्त कर,
कोच के प्रयोग की पुष्टि की और हैजा से संबंधित अनुसंधान को
रुचिकर बनाया| भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आई.सी.एम.आर)
ने सन १९६२ को कलकत्ता में "कॉलरा अनुसंधान केंद्र" स्थापन करने
का निर्णय लिया ताकि हैजा तथा अन्य दस्त की बीमारियों की
रोकथाम और नियंत्रण पर अनुसंधान जारी रहे|
इस केंद्र ने नए उपचारात्मक तरीकों के मूल्यांकन के लिए कई
चिकित्सीय परीक्षण शुरू किए तथा जिनेवा में स्थित विश्व
स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization - WHO) का हैजा
वाहक (Cholera carriers), सीरम विज्ञान (serological) और
रसायनरोगनिरोध (chemoprophylaxis) अध्ययन विभाग के सहयोग से दो
हैजा के टीका क्षेत्र का परीक्षण सम्पन्न किया|
१९६८ में एस. मुख़र्जी के उत्कृष्ट अध्ययन के पश्चात् विश्व
स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने इस केंद्र को "विब्रियो फेज टाइपिंग
के लिए अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ केंद्र" (International
Reference Centre for Vibrio Phage Typing) का दर्जा दिया तथा
१९७८ में इसे "विब्रियो पर संदर्भ और अनुसंधान के लिए विश्व
स्वास्थ्य संगठन का सहयोगी केंद्र" (WHO Collaborative Centre
for Reference and Research on Vibrios) अभिहित किया|
जैव प्रौद्योगिकी में उन्नति के साथ साथ १९७० के दशक मे बेहतर
निदानकारी प्रक्रियाओं और अधिक संख्या में रोगजनक आंत्रिक
सूक्ष्म जीवों के आविष्कार के दौरान इस केंद्र ने भी अपनी
गतिविधियों का विस्तार किया जिसके चलते भारतीय आयुर्विज्ञान
अनुसंधान परिषद (ICMR) इस केंद्र को एक पूर्ण विकसित अनुसंधान
संस्थान के रूप में विकसित करते हुए इसे राष्ट्रीय संस्थान का
दर्जा दिया तथा १९७९ में राष्ट्रीय कॉलरा और आंत्र रोग संस्थान
(NICED) का नया नाम दिया| १९८० में विश्व स्वास्थ्य संगठन
(WHO) ने इस संस्थान को "दस्त रोगों पर अनुसंधान और प्रशिक्षण
के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन का सहयोगी केंद्र" (WHO
Collaborative Centre for Research and Training on Diarrheal
Diseases) के रूप से मान्यता दी|
राष्ट्रीय कॉलरा और आंत्र रोग संस्थान (NICED) तीव्र दस्त से
होने वाली बीमारियों के विविध रोग निदान के साथ-साथ टाइफाइड
बुखार, संक्रामक हेपेटाइटिस और एचआईवी / एड्स से संबंधित
महामारी विज्ञान अन्वेषण और जाँच पर अनुसंधान करता है। इस
संस्थान के लक्ष्य बुनियादी और व्यवहारिक दोनों पहलुओं पर इन
बीमारियों पर अनुसंधान करना है।यह संस्थान दस्त के रोगों की
बेहतर प्रबंधन तथा रोकथाम और ईटियोलॉजिकल एजेंटों के द्रुत और
सही निदान के लिए स्वास्थ्य पेशेवरों को भी प्रशिक्षित करता
है। दस्त के बीमारियों की महामारी संबंधी जांच भारत के विभिन्न
हिस्सों में की जाती है। विब्रियो कोलेरा के खिलाफ एंटीसेरा इस
संस्थान में प्रस्तुत किया जाता है तथा राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं को आपूर्ति की जाती है। वर्तमान
में, विब्रियो कोलेरा O 139 उपभेदों का पता लगाने के लिए
विशिष्ट मोनोक्लोनल एंटीसेरम विकसित किया गया है जिसे विभिन्न
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के वितरण के लिए
डब्ल्यूएचओ (एसईएआरओ) { WHO (SEARO)}, नई दिल्ली को आपूर्ति की
जाती है। इस संस्थान को डब्ल्यूएचओ चरण संदर्भ केंद्र (WHO
Phage Reference Center)के रूप में, फेज टाइपिंग के लिए दुनिया
भर से बड़ी संख्या में विब्रियो कोलेरा उपभेदों का प्राप्ति
होता है।